मेरी गली में डोली लेकर कहार गुज़रे
ऐसा लगा कि जैसे अब्रे-बहार गुज़रे।
ऐसा लगा कि जैसे अब्रे-बहार गुज़रे।
बारातियों की सज-धज, वो ठाट-बाट, ठसके
कुछ रौबदार गुज़रे, कुछ शानदार गुज़रे।
दुल्हन का रूप-यौवन, वो बेखुदी का आलम
तन-मन भिगो के जैसे ठंडी फुहार गुज़रे।
क्यूँ याद आ रहे हैं वे हादिसात मुझको
ज़ुल्मात की हदों को जो करके पार गुज़रे।
दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
जब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।
सैलाब आँसुओं के, बिखराव गेसूओं के
आँचल उतर के सर से हो तार-तार गुज़रे।
लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर
अब्रे-बहार-बहार का बादल, ज़ुल्मात-अँधेरे
इस रचना की सुन्दरता.....शब्दातीत.....क्या कहूँ.
ReplyDeleteइस रचना की सुन्दरता.....शब्दातीत.....क्या कहूँ.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना. धन्यवाद प्रस्तुति के लिये
ReplyDeletebahut behtreen rachana.
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
विचारों की परिपक्वता और कोमल भावनाओं का अनूठा संगम है अम्मा जी की यह रचनाये , और इनसे भी ज्यादा प्रभावी हैं वे संवेदनाएं जिन के बल पर इनकी प्रस्तुति सम्भव हुई ।
ReplyDeleteशेष शुभ, इति... शुभदा
बहुत ही सुन्दर रचना. भावना जी, आपका आभार इसे प्रस्तुत करने का. और भी लाईये अम्मा जी की रचनाऐं.
ReplyDeleteरचना बहुत ही संवेदनशील है | बधाई हो , आप तो बहुत ही अच्छा लिखती हैं , इस जज्बे को सलाम |
ReplyDeleteकहाँ से ढूंढ़ लायीं इन पंक्तियों को आप! भावनाओं में अद्भुत उतार-चढाव. शुभकामनाएं.
ReplyDelete'दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
ReplyDeleteजब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।
सैलाब आँसुओं के, बिखराव गेसूओं के
आँचल उतर के सर से हो तार-तार गुज़रे।'
-मन को कचोटने वाली पंक्तियाँ.
'दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
ReplyDeleteजब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।'
- चुभती पंक्तियाँ.
दुल्हन का रूप-यौवन, वो बेखुदी का आलम
ReplyDeleteतन-मन भिगो के जैसे ठंडी फुहार गुज़रे।
bahoot ही सुन्दर और मस्त है ये sher , yun to poori gazal ही lajawaab है