Wednesday, March 25, 2009

सामने उनके ज़ुबाँ ये, कुछ भी कह पाती नहीं...

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सामने उनके ज़ुबाँ ये, कुछ भी कह पाती नहीं
बात लेकिन दिल की किसके सामने आती नहीं।

नब्ज़ मेरी देख कर बतलाइए क्या है मुझे
जाम कितने पी चुका मैं, तिश्नगी जाती नहीं।

बारहा सोचा, समझ में आज तक आया नहीं
नींद क्यों आँखों में मेरी रात भर आती नहीं।

मुब्तला मैं हो गया हूँ इश्क़ में अब क्या करूँ?
क्यों इबादत अब खुदा की काम कुछ आती नहीं।

हो गई जिसकी वजह से ज़िन्दगी आहों भरी
वो परीवश भी तो मुझको आके समझाती नहीं।


तिश्नगी-प्यास, परीवश- परियों जैसा, बारहा-बार-बार, मुब्तला-ग्रस्त, इबादत-पूजा
लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर

Sunday, March 22, 2009

रहता है जो इस दिल में, उस यार के सदके हम...

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रहता है जो इस दिल में, उस यार के सदके हम
जो मिट के न मिट पाया, उस प्यार के सदके हम।

जां अपनी चली जाये, परवाह नहीं कुछ भी
इज़्ज़त के पुजारी हैं, दस्तार के सदक़े हम।

होली हो, दीवाली हो, या ईद की खुशियाँ हों
बिछड़ों को मिला दे-उस त्यौहार के सदक़े हम।

संगीत ही दुनिया है, संगीत ही जां अपनी
इस साज़े-मुहब्बत की झंकार के सदक़े हम।

जब हो ही गए रुस्वा, हम सब से मिलेंगे अब
इक़रारे-मुहब्बत में इक़रार के सदक़े हम।

सदक़े-न्यौछावर, दस्तार-पगड़ी
लेखिका- लीलावती बन्सल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर

Sunday, March 15, 2009

पता नहीं ये दिल की बातें दिल से कब हो जाती हैं...


कुछ पाठकों ने इस ब्लॉग को पसंद किया है और अनुसरणकर्ता में अपना नाम दिया ना जाने मुझसे कैसे उनका नाम हट गया... मन बहुत दुखी हुआ... और मैं उनको देख भी नहीं पाई कि कौन-कौन थे.. अगर वे लोग फिर से अपना लिंक देंगे तो मुझे खुशी होगी....
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पता नहीं ये दिल की बातें दिल से कब हो जाती हैं
दिल के भीतर जाकर फिर वे ख़्वाबों में खो जाती हैं।

मुझसे था तो उसका रिश्ता, लेकिन उसने माना कब
चर्चाएँ इसकी भी आख़िर घर-घर में हो जाती है।

मुतवातिर नाकामी से हम कैसे खुश रह सकते हैं
इच्छाएँ मरने लगती हैं, उम्मीदें सो जाती हैं।

रैन-दिवस पगलाया-सा मैं आहें भरता रहता हूँ
आँसू की धाराएँ बह-बह, गालों को धो जाती हैं।

समझ नहीं पाता है कोई दिल को क्या हो जाता है
दिल के किए को मेरी साँसे किसी तरह ढो जाती है।

लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर
मुतवातिर-लगातार

Friday, March 6, 2009

मुझसे नज़र बचा के अकेली गुज़र गई...


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मुझसे नज़र बचा के अकेली गुज़र गई
कोई ज़रा बताए मुझे वो किधर गई।

महसूस कर रहा हूँ अब उसके फ़िराक़ में
जैसे कि रेल सीने से मेरे गुज़र गई।

जो भी सज़ाएँ देनी हों, वो दीजिए मुझे
सूरत हसीन आपकी, दिल में उतर गई।

अपने ही गाँव वाले मुझे जानते न थे
ये खुद की जुस्तज़ू, मुझे मशहूर कर गई।

हमने हसीन ख़्वाब तो देखे न थे कभी
किस की दुआ है आज जो क़िस्मत सँवर गई।

लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर

जुस्तजू-तलाश, फ़िराक-चिन्ता, हसीन-सुन्दर

Monday, March 2, 2009

मर गई इन्सानियत इन्सान की इस दौर में...

7.
मर गई इन्सानियत इन्सान की इस दौर में
शान मिट्टी हो गई ईमान की इस दौर में।

अब किसी के खून में सुर्ख़ी नहीं, गर्मी नहीं
चर्ख़ तक गुड्डी चढ़ी शैतान की इस दौर में।

काम कुछ आती नहीं अब बुज़र्गों की दुआ
क्या ज़रूरत रह गई भगवान की इस दौर में।

जिस जगह भी देखिए हैवानियत का नाच है
हर कहीं सत्ता है बस हैवान की इस दौर में।

आज की दुनिया है बस चालाकियों पर है टिकी
ख़्वार है मिट्टी बहुत, नादान की इस दौर में।
लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर