Friday, February 13, 2009

मेरी गली में डोली लेकर कहार गुज़रे...

मेरी गली में डोली लेकर कहार गुज़रे
ऐसा लगा कि जैसे अब्रे-बहार गुज़रे।

बारातियों की सज-धज, वो ठाट-बाट, ठसके
कुछ रौबदार गुज़रे, कुछ शानदार गुज़रे।

दुल्हन का रूप-यौवन, वो बेखुदी का आलम
तन-मन भिगो के जैसे ठंडी फुहार गुज़रे।

क्यूँ याद आ रहे हैं वे हादिसात मुझको
ज़ुल्मात की हदों को जो करके पार गुज़रे।

दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
जब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।

सैलाब आँसुओं के, बिखराव गेसूओं के
आँचल उतर के सर से हो तार-तार गुज़रे।
लेखिका- लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्त्ता- भावना कुँअर

अब्रे-बहार-बहार का बादल, ज़ुल्मात-अँधेरे

11 comments:

  1. इस रचना की सुन्दरता.....शब्दातीत.....क्या कहूँ.

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  2. इस रचना की सुन्दरता.....शब्दातीत.....क्या कहूँ.

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  3. बहुत खूबसूरत रचना. धन्यवाद प्रस्तुति के लिये

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  4. bahut behtreen rachana.

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  5. विचारों की परिपक्वता और कोमल भावनाओं का अनूठा संगम है अम्मा जी की यह रचनाये , और इनसे भी ज्यादा प्रभावी हैं वे संवेदनाएं जिन के बल पर इनकी प्रस्तुति सम्भव हुई ।

    शेष शुभ, इति... शुभदा

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  6. बहुत ही सुन्दर रचना. भावना जी, आपका आभार इसे प्रस्तुत करने का. और भी लाईये अम्मा जी की रचनाऐं.

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  7. रचना बहुत ही संवेदनशील है | बधाई हो , आप तो बहुत ही अच्छा लिखती हैं , इस जज्बे को सलाम |

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  8. कहाँ से ढूंढ़ लायीं इन पंक्तियों को आप! भावनाओं में अद्भुत उतार-चढाव. शुभकामनाएं.

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  9. 'दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
    जब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।

    सैलाब आँसुओं के, बिखराव गेसूओं के
    आँचल उतर के सर से हो तार-तार गुज़रे।'
    -मन को कचोटने वाली पंक्तियाँ.

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  10. 'दुल्हन रही न दुल्हन, डोली रही न डोली
    जब क़ातिलों के उन पर ख़ंजर के वार गुज़रे।'
    - चुभती पंक्तियाँ.

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  11. दुल्हन का रूप-यौवन, वो बेखुदी का आलम
    तन-मन भिगो के जैसे ठंडी फुहार गुज़रे।
    bahoot ही सुन्दर और मस्त है ये sher , yun to poori gazal ही lajawaab है

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